103 साल की उम्र में जेल से बाहर आया एक इंसान — यह वाक्य जितना अजीब लगता है, उससे कहीं ज़्यादा दर्दनाक है इसके पीछे की सच्चाई। यह कहानी है उत्तर प्रदेश के कौशांबी ज़िले के लखन सरोज की, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के 43 साल जेल की सलाखों के पीछे बिताए। यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं, बल्कि हमारे देश की न्याय प्रणाली की एक कड़वी हकीकत है, जो इंसानियत, सिस्टम और समय की क्रूरता को उजागर करती है।
लखन सरोज कौन हैं?
लखन सरोज उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले के एक छोटे से गांव “गौराये” के निवासी हैं। वर्ष 1977 में एक झगड़े के दौरान एक व्यक्ति प्रभु सरोज की हत्या हो गई थी। इस घटना के लिए पुलिस ने लखन सहित चार लोगों को आरोपी बनाया।
हालांकि तब लखन लगभग 60 वर्ष के थे, फिर भी उन पर हत्या और हत्या की कोशिश का केस दर्ज हुआ। निचली अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इसके बाद शुरू हुई एक लंबी और दर्दनाक न्यायिक यात्रा, जिसमें उनके 43 साल जेल में बीत गए।
कैसे हुई गिरफ्तारी और सज़ा?
घटना:
• तारीख: 16 अगस्त 1977
• घटना: दो गुटों के बीच झगड़े में प्रभु सरोज नामक व्यक्ति की मौत
• आरोपी: लखन सरोज समेत चार लोग
प्रक्रिया:
• 1982 में कोर्ट ने सभी को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई
• लखन ने हाईकोर्ट में अपील की और कुछ समय बाद जमानत पर छूटे
• 2015 में पुनः गिरफ्तार: जमानत की शर्तों के उल्लंघन के कारण फिर जेल भेजे गए
जेल की ज़िंदगी: 103 साल की उम्र में भी कैद
लखन सरोज को कौशांबी जिला जेल में रखा गया, जहां उन्होंने अपनी वृद्धावस्था के सबसे कठिन साल काटे।
स्वास्थ्य समस्याएँ:
• उम्रदराज होने के कारण चलने-फिरने में असमर्थता
• इलाज की सीमित सुविधा
• मानसिक तनाव और अकेलापन
परिवार का हाल:
• उनकी पत्नी और बेटा उनका साथ छोड़ चुके थे
• सिर्फ बेटियों ने उनका केस लड़ने और रिहा कराने की कोशिश की
आखिरकार मिली रिहाई – लेकिन बहुत देर से
2025 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मामले को गंभीरता से लिया। गवाहों की गवाही में भारी विरोधाभास और सबूतों की कमी को देखते हुए लखन सरोज को निर्दोष करार दिया गया।
लेकिन:
• अदालत का फैसला आ जाने के बावजूद प्रशासनिक लापरवाही के कारण उन्हें 20 दिन और जेल में रहना पड़ा
• जब वह रिहा हुए, तो उनका स्वास्थ्य बिगड़ चुका था, दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी
न्याय प्रणाली की विफलता की मिसाल
1. न्याय में देरी = अन्याय
लखन जैसे कई लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पाता, जिससे उनकी पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है।
2. आर्थिक और सामाजिक असमानता
गरीब और ग्रामीण लोगों को अक्सर सही कानूनी सहायता नहीं मिल पाती, जिससे वे लंबे समय तक केस में फँसे रहते हैं।
3. वृद्ध कैदियों के लिए नीति की ज़रूरत
80 साल से ऊपर के कैदियों के लिए विशेष नियम और प्राथमिकता से सुनवाई का प्रावधान होना चाहिए।
समाज और व्यवस्था को क्या सीख मिलती है?
• हमें अपनी न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाना होगा, ताकि मासूम लोगों की ज़िंदगी यूँ बर्बाद न हो।
• समाज को भी इस तरह के मामलों में आवाज़ उठानी चाहिए, ताकि दबे हुए सच सामने आएं।
• जेल प्रशासन और अदालतों को आपसी समन्वय के साथ काम करना चाहिए, जिससे रिहाई में अनावश्यक देरी न हो।
निष्कर्ष
103 वर्षीय लखन सरोज की कहानी एक अकेले व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता की कहानी है। उन्होंने वो समय जेल में बिताया, जब उन्हें परिवार के साथ होना चाहिए था। उनके साथ जो हुआ, वो किसी के साथ न हो — यही उम्मीद है।
यह घटना हम सभी को यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हमारा न्याय तंत्र वाकई समय पर काम कर रहा है? या फिर लखन जैसे और कितने लोग अब भी सलाखों के पीछे ज़िंदगी काट रहे हैं, जिनका दोष सिद्ध नहीं हुआ?